(एक टॅक्सीवाला अपनी गाडी में सोया हुआ दिखाई देने लगता है । उस की गाडी में रेडिओ या सीडी प्लैयर पर गाने सुनायी देते हैं । कुछही देर में वह उठता है । सीट के नीचे से एक पानी की बोतल उठाकर हाथ मूँह धो कर वापस आता है और तब ही ऑडियन्स से बातें करना शुरू करता है ।)
टॅक्सीवाला : लल्लन गोपीलाल पांडे । बॅच नंबर १७८६ । गाडी नंबर एम एच जीरो वन ए ए ३०३९ । कूल कैब, बकेट सीटें, पढने के लिये पेपर, एकाद मैंगझिन और पीने के लिये बिसलैरी का शुद्ध जल यह सब इस टॅक्सी में मुफ्त में मिलता है ! मीटर में घापा, रूट में लफडा, झूठा टैरिफ कार्ड, पैसेंजर को तकलीफ वाली कोई बात .. और गाडी में बैठे लैडीज की जवानी अच्छे से देखने के लिये कोई खास आईना .. यह सब हमारे यहाँ बिल्कुल नही । इन सबही चीजों के लिये तमाम टॅक्सीवालों को, आटोवालों को बदनामी का धब्बा वैसेही लग जाता है .. मतलब पैसेंजर गाडी में बैठने से पहले ही यह तय कर के ही बैठता है कि उसका पाला अब एक हरामखोर कमीने से पडनेवाला है । ऐसी हालत में पैसेंजर के साथ बात करना तो कम ही होगा क्यों ? बहुत ही कम होता है । और उस में पैसेंजर अगर लेडीज हो तब तो इसका चांस एकदम झिरो समझो !
हमारे पिताजी गांव छोडकर यहाँ आ गये उसको पचास साल हो गये । हम यहीं पैदा हुए, यहीं पर स्कूल किया, खेलना, कूदना .. सब इधर .. हमारे गांव के साथ कोई लगाव नहीं .. उलटा उधर कभी गये तो वापस आने के लिये परेशान करते थे हम हमारे पिताजी और माँ को .. आज तक का, बोले तो सब और इसके आगे भी, सब होगा तो इधर ही ! तो कहने की बात यह है .. कि पैसेंजर के साथ कभी कोई मटरगस्ती हम नही करते .. कभी भी .. कसम से .. उलटा कितने ऐसे पैसेंजर हैं जिनके पास अपना मोबाइल नंबर है .. और जरूरत पडने पर उनको लल्लन ही याद आयेगा !
(उसका फोन बजने लगता है । फोन उठाकर ..)
अरे हां .. महेन्द्रा .. कसा काय रे ? और आई ? और .. भाबी कशी काय ? नाय रे .. अरे तु एक सांग्नार काय मला ? ते आपुन्च्या भाजी दुकान समोर ती चाली होती नाय काय .. त्याच्यामंदी ती कोन होती .. ते पलून जाउन लगन केला ती ? याद कर ना .. ठीक से .. गोरी .. लुकडी हाय .. तुला कोन भेटतो काय ते लोक पैकी ? ते बापट आनि ते गोयल आनि ते .. नाय काय .. चल साला ठेवतो .. हां मी म्हनून मिस कॉल दिली तुला .. नाय दुसरा काय नाय .. हां चल .. गनपतीला नाय आलो .. पन मोदक ख्यायाच हाय .. येनार .. येनार ..
(अब फिर से लोगोंसे बातें शुरू करता है।)
बचपन के दोस्त .. वैसे बचपन के दोस्त लोग ने मराठी सिखाया .. और टॅक्सी धंदे ने .. पंजाबी, गुजराती और थोडा एन्ग्लिश सिखाया ।
लोग फोन तो मारते रहते है .. पैसेंजर लोग तो दोस्त है अपने .. हम टॅक्सी खरीदने के लिये जिससे पैसा उधार लिये थे वो पडौसी पारसी काका हर रात को फोन करता है ..(गुजराती में ..) डिकरा. खाना खाया क्या ? पेट को मारने का नहीं .. उसके लिये तो सब इधर आया .. तेरा बाप, मेरा बाप सब पेट के लिये इधर आया .. अपना पेट भरने का और जो बचेगा उससे दुसरे का ..
या हप्ते में दो या चार दफे जो अपना भोनी का गिर्हायक रहता है वो पंजाबी .. सुबह फोन करेगा .. (पंजाबी में) कैसा है लल्लन .. आज पैसा कमाना है क्या ? तो रूक .. मै आ रहा हूँ .. मेरे साथ धंदा शुरू कर .. चैन करेगा जिन्दगी में ..
अपना धंदा ऐसा के किसम किसम के लोग पीछे बैठते हैं । एकदम अलग अलग टाईप .. अपने अपने तरीके से आते जाते हैं । बहुत सारे तो निकल जात है दिमाग से .. जैसे टैक्सी से निकले .. दिमाग से भी निकले फटैक से !
लेकिन साला अभी अभी जिसे छोडकर यहाँ लेटा था .. वह एक मॅडम थी .. अपना सांताक्रुज एरपोर्ट पर चढी .. दिल्ली फलाइट से आयी थी । आना था इधर ताज होटेल .. गेटवे आफ इंडिया .. तो हम चल पडे .. मीटर डाउन किया .. एसी फुल मारा .. और चले .. अब एरपोर्ट से निकले और ऐसा हायवे सामने पडा, और हम देख रहें हैं की लेफ्ट किलयर तो है कर के .. तो ये मॅडम पीछेसे बोली .. राइट राइट ले लो .. अब हम तो पुरी तैय्यारी में थे लेफ्ट टर्न के लिये और यह अचानक चिल्लायी .. तो थोडा परेशानी में हमने देखा और कैसे भी गाडी को ले लिया राइट में .. अब पीछेवाला गाली देकर चला गया होगा .. मगर क्या करें ? पैसेंजर बोले तो करना पडता है .. वैसे मॅडम को ताज होटल जाना था मगर मुंबई मे नयी नही लग रही थी .. अब हमें यह पूछना जरूरी था के ताज जाना है तो लेफ्ट के बजाय राइट टर्न क्यू ? तब ही मॅडमने मुँह खोला .. पार्ले मे ले चलो । आप को मालूम है ? नही तो मैं बता दूंगी .. दिक्षित रोड .. थोडा काम है ।
मेमसाब के लिये मुंबई कुछ जानी पहचानी सी लगती है यह पक्का हो गया !
विलेपार्ले का चप्पाचप्पा जानते है हम । विलेपार्ले मे छोटीछोटी गलियाँ और रस्ते ऐसे एक दुसरे में घुसें हुएं हैं कि बाहर के टैक्सीवाले परेशान हो जाते हैं .. मॅडम का गुडलक का नसीब था .. तो हमने टैक्सी को सीधा दीक्षित रोड पर लाकर खडा किया .. और अब मॅडम से बात करने के लिये हम जब अपना आइना ठीक कर रहें थे तब देखा कि दिक्षित रोड पहुँचने पर उनकी तो आँखे ही बदल गयी .. उसने फिर हमें पार्ले की गलियोंमें थोडा घुमाया और फिर हम चल पडे अपने रास्ते पर ..
खेरवाडी सिग्नल गया .. तब मॅडम फिर से बोलने लगी .. किती बदल झालाय इथे ? ह्या एवढ्या वस्त्या होत्या कुठे हाय वे च्या बाजूने ..
हमने पूछा .. मॅडम .. तुम्ही पार्ल्यातून हाय काय ?
तब पता चला कि मॅडम विलेपार्ले में पैदा हुई .. मराठी अच्छा बोल लेती थी .. पढाई लिखाई कर कर मुंबई में शादी बनाकर रहने लगी होगी .. और फिर कुछ साल पहले मॅडम ने मुंबई से दिल्ली चली गयीं ..
क्यों गयी होगी ?
मगर पैसेंजर ऐसा कुछ साफ साफ थोडे ही बतायेगा ? लेकिन हम बचपन से जब भी फ़िलिम देखने जाते हैं ना .. तो स्टोरी .. या फिर सप्सेन्स पहेचानने में कभी फॉल्ट नही किया .. ऐसे ही जो भी मॅडम बोली थी उसपर से मॅडम की एक स्टोरी हमने बनायी ..
बाद में हम चुप थे .. मॅडम भी चुप थी .. और देख रही थी .. सब चीजें .. सी लिंक पर मोबाईल से विडिओ ले रही थी .. और जब वरली पहुंचने पर .. कुछ लफडा था तो सी फेस के बजाय और घुम के जाना पडा .. तो पासपोर्ट आफिस की तरफ से जब राईट टर्न ले रहें थे तब मॅडम कि आँखो में पानी ! कुछ देर तक मॅडम आँखें बंद कर के बैठी । मैने मराठी में शुरुवात की ..
सी लिंक मस्त वाटला क नाय मॅडम ? मैने कहां
हूं .. छान ..
पासपोर्ट ऑफिस शिफ्ट झाला आता ..
हो का ? केव्हा ?
तुम्ही काम करायच्या काय ह्या अरियामंदी ?
नाही .. मी नाही .. माझा ..
और मॅडम एकदम चूप .. और बाहर देखने लगी ..
फिर तो हाजी अली आया तो सिर्फ उधर ही देख रही थी .. हम तो हाजी अली को मानते हैं ..
अपना बाइच नंबर मे ७८६ है नं ..
उतने में मॅडम को एक फोन आया ..
हां हां .. बोल गं .. नाही नाही .. मी येऊन गेले .. तुझं घर बंद दिसलं खालून म्हणून मग थांबले नाही .. नहीं यार दिल्ली से प्यार कहां .. मुंबईवर .. जरा जास्तच प्रेम केलं मी .. नाही नाही .. मी ताजमधे असेन दोन दिवस .. सिंपोझियम झालं की जाईन .. हं .. मी त्या फोटो साठीच आले होते .. अर्शद, मी आणि मनू .. तो देशील मला .. मी खूप मिस करत्ये ते सगळं .. नाही .. इथे नको .. आय अॅम बेटर अवे .. दे .. ताजची रूम नं कळवीन ..
फिर चौपाटी पहुंचने से पहले .. वहांपर मॅडम ने कहां .. रुको .. हम साईड में लिये टैक्सी को .. साईड वाले चाय दूकान से चाय मंगायी गयी .. और फिर मॅडम ने बात शुरू की ..
मुंबई सारखं काही, कुठेच नाही. काय मस्त आहे ही सिटी .. इथे पलिकडे माझं कॉलेज आहे .. हा चायवाला आमचा फ़ेवरिट होता .. कैसी है चाय ?
जब मॅडम को हमने गेट वे पर छोडा .. तब मॅडम ने पूछा .. तुम्ही कुठले ..? तब मुँह से निकल गया, पारला ! तब वह हस कर बोली .. अरे वाह .. मैं भी विलेपार्ले की हूँ । अब नही रहती मुंबई में .. थँक्यू .. तुम ने दीक्षित रोड पर गाडी जहाँ पर खडी की थी .. उधर सामने ही घर था मेरा .. एक चाल थी उस में .. अब नहीं है .. नाइनटी फोर में छोडा .. नयी बिल्डिंग बनी है अब वहाँ ।
ये हमने सुना और अपना तो फ्युज गुल्ल .. बाद में उसने कितने पैसे दिये .. मीटर कितना बोल रहा था कुछ देख ही नहीं पायें हम ..
विलेपार्ले भाजी मार्केट में दलाली करने वाले मेरे चाचा से दुश्मनी मोड लेने के बाद मेरे पिताजी ने जहां पर पत्रे का मकान खरीदा था, उसके बिल्कुल सामने तो मैने गाडी खडी की थी उस दीक्षित रोड पर । अब हमारा वो मकान भी तो नहीं रहा। बस मेरा स्कूल है .. म्युन्सिपाल्टी का । लेकिन पिताजी के बाद मैने टैक्सी धंदे में जंप किया .. भाजी का धंदा माँ देखने लगी .. और कॉलेज हम से नही हो पाया .. मगर अब हमारे बच्चे पढ रहें है .. रुइया स्कूल में .. विलेपार्ले का हिंदी स्कूल है । हमारेही उमर की होगी ये मॅडम .. तो क्या ये उस सामने वाले मकान में रहनेवाले बापट काका की अंजू थी? या गोयल काका की बोधी ? या कौन ? करंदीकरकाकी की उर्मिला ? या कृष्णम अंकल की सुधा ? या भाऊ कामत की सुचेता ? कौन होगी यह ? मैं होश में आकर उस से पूँछू .. उस के पहले वह चली गयी थी .. वह भी कितनी बदल गयी थी .. फिर मैं ने फोन पर फोन किया .. उसी चाली में रहनेंवाले साळवी और कांबळे नाम के मेरे स्कूल के दोस्त लोग थे .. उन से पता करवाने की कोशिश की .. अभी थोडी देर पहले कांबळे ने फोन किया था .. उसे तो कुछ याद नही आ रहा ..
मॅडम के चले जाने पर .. मैने बहुत सारे फोन किये .. अब तो पता लगाना ही है के वो कौन थी ..
हा पोपट .. केम छो .. (गुजराती में) वो कृष्णम अंकल की सुधा ने किससे शादी बनाये रे ?.. क्या .. ?
ए .. बबलू .. बोल ताज में कोई पैचान है क्या .. ?
उतने में फोन बजा .. पक्या का था ..
हां बोल .. पक्या .. क्या .. बापटकाका की अंजू .. पक्का क्या ? .. कया ? तू ने देखा क्या ? अच्छा ? क्या बोलता है यार ? .. अर्शद कौन ? .. क्या ? मर गया .. ? अच्छा ? तो ? ठीक है .. चल हां रख ..
अरे हम तो खेले है बचपन में .. यह तो अंजू निकली .. साला मै पैचान नही पाया .. और इसके बारे में सोच कर राते खराब की थी .. कॉलेज नही हो पाया तब तीन चार बार फिर से कोशिश सिर्फ इस के लिये किया था .. तब सपना तो देखा था इसका .. मगर अपनी औकात से उप्पर का सपना लगा था .. मगर उसका भी तो कोई सपना टूँटा लगता है .. उसको मुंबई क्यो छोडना पडा .. क्यो रो रहीं थी वो .. एक्दम उसका सब कुछ अपना लगने लगा था .. उसका रोना .. चुप रहना .. सब .. बाद में मै खुद से बोला .. पगला गया क्या ? ये सब जानकर क्या करेगा ? .. फिर चाय मारी एक .. और बैठा रहा हवा चली रही थी उसपर ..
सोचते सोचते कब नींद आयी पता नहीं .. और पैसेंजर मॅडम .. अंजू .. अब भी दिमाग से हटने को तैयार ही नही है । किसम किसम के सवाल उस के बारे में .. क्या हुआ होगा .. वगैरा .. और बस दिमाग का जब डोंबिवली होने लगा तो दिमाग ने सो जाने का सोचा होगा .. तो सो गये।
अब फ़्रेश हुएं आप से बात कर के .. अब चलना पडेगा । दिमाग ने ज्यादा पलटी खाया तो कल देखेंगे क्या करना है इसका .. चलती का नाम मुंबई है भैया .. अपना दिमाग भी तो मुंबई का दिमाग है .. वह बैठेने से या सोने से अच्छा नही होगा .. काम .. काम शुरू होता है तब सब ठीक हो जाता है ! अंदर-बाहर सब ठीक !
अब एक नजर पीछे डालो .. पैसेंजर कुछ छोड के तो नही चला गया .. वर्ना कुछ रह जायेगा .. वह चीज कुछ भी हो सकती है .. अंजू भला क्या छोड जायेगी ? कुछ नही है ..
तो चले ? मूड को अप करना है .. तो करो मीटर डाऊन ..
(स्टार्टर की आवाज ... नये पैसेंजर की आवाज .. मुहम्मद अली रोड? .. लल्लन की आवाज. हाँ जी .. चलिये ! और मीटर की आवाज .. फिर नये पैसेंजर की आवाज अंजनी अर्शद .. ये विझटिंग कारड कोई भूल गया है यहाँ सीट पर .. इस के पीछे थँक यू लिखा है .. मियाँ .. चाहिये क्या .. के इसे फेक दे .. लल्लन एक झटके में पीछे मुडने लगता है तब अंधेरा)
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